राशन की दुकान और मिट्टी का तेल .....
रद्दी काग़ज़ पर लिखने का किस का मन चाहता है ….कहीं भी पसरे हुए नेट्फ्लिक्स, प्राईम-व्हीडियो, यू-ट्यूब पर अपने गांव-कसबे के खाने पीने के ज़ायके देखते देखते कब वक्त गुज़र जाता है ….ख्याल ही नहीं रहता।
लिखने का भी अकसर मन नहीं करता….लेकिन कुछ बातें-यादें जो रह रह कर आती हैं, चेहरे पर मुस्कान ले आती हैं….लगता है उन को संजो लिया जाए तो ही ठीक है ….
यह जो लाइनों में खड़े हो कर कुछ लेने की बात है …जब मैं अपने बचपन को या किशोरोवस्था को याद करता हूं तो मुझे रेलवे टिकट के लिए…चालू टिकट हो या फिर आरक्षित टिकट हो, किसी फिल्म के लिए किसी टाकीज़ के बाहर, और राशन की दुकान पर मिट्टी का तेल (घासलेट) और चीनी (शक्कर) लेने के लिए लाईन में खड़े होना अकसर याद आता है तो हंसी आ जाती है …..रेलवे रिज़र्वेशन के लिए आप चाहे कब से खड़े हों, लेकिन मर्ज़ी अंदर बैठे बाबू की ही चलती थी …रजिस्टर में सब कुछ हाथ से लिखा जाता था ….। फिल्म की टिकट लेने के लिए लाईन में खड़े रहना ….क्योंकि ब्लैक में टिकट लेने का जुगाड़ न होता था ….और राशन की दुकान पर आए दिन घासलेट और शक्कर के लिए चक्कर पर चक्कर लगाते रहना …..और वह धूर्त राशन की दुकान वाला ….वह हिंदी फिल्म का खलनायक से कम न लगता था …उस के काम भी लगभग सभी वैसे ही थे ….अपनी उम्र चाहे 10-12 बरस की रही होगी तो बहुत सी बातें दिखने-समझ आने लगी थीं….
खैर, चलिए, आज मिट्टी के तेल की बातें मुझे इन रद्दी काग़ज़ों पर दर्ज करनी हैं…..
स्कूल के दिन थे …अभी कुकिंग गैस नहीं आई थी ….मुझे नहीं पता कब आई या कब नहीं….लेकिन हमारे घर में 1972 में आई थी …..उस से पहले अधिकतर काम कोयले की अंगीठी पर और स्टोव पर हुआ करता था ….
हां, दोस्तो, व्यवस्था यह थी कि हर महीने 5 लिटर घासलेट मिलता था राशन की दुकान से …लेकिन यह मुझे याद नहीं उस के लिए कितने चक्कर लगाने पड़ते थे ….बहुत कम बार ऐसा हुआ कि मिट्टी के तेल के साथ साथ राशन की चीनी (शक्कर) भी मिल गई हो, वरना शक्कर के लिए अलग मशक्कत करनी पड़ती थी …उस के लिए अलग 3-4 चक्कर लगाने पड़ते थे ….घर के एक मेंबर के लिए 400 ग्राम शक्कर मिलती थी …यानि की 5 सदस्यों के लिए 2 किलो चीनी मिलती थी ….और वह चीनी बिल्कुल बारीक होती थी, इतना तो मुझे पक्का याद है …..
चीनी राशन की दुकान से इसलिए ली जाती थी कि राशन की दुकान वाली चीनी और बाज़ार में मिलनी वाली चीनी के दाम में बहुत ज़्यादा फ़र्क होता था ….बिल्कुल मिट्टी के तेल की तरह ….क्योंकि मिट्टी का तेल महंगे रेट पर (इसे कहते थे ब्लैक में मिलने वाला घासलेट) अकसर बाज़ार में मिलता नहीं था….
हर घर में एक ऐसी पीपी होती थी ….एक पांच लिटर की कैनी …लोहे की ….जिस के ऊपर सर्वो, एसो ….या ऐसा ही कुछ लिखा होता था ..जिसे अपनी साईकिल के कैरियर पर रख कर ले जाना और भरी हुई पीपी को उसी हिफ़ाज़त से पिछले कैरियर पर बिना छलकाए ले कर आना एक हुनर से कम न था…
जैसा कि मैंने पहले ही लिखा है कि ऐसा नहीं कि एक बार गए और मिट्टी का तेल उठा कर ले आए…..पहले तो वहां लंबी लाइन हुआ करती थी और बहुत बार नंबर आने से पहले उस का मिट्टी का तेल खत्म हो जाता था ….बस, बैरंग घर लौट आना पड़ता था ….। दो एक बार तो उस के डिपू पर जाना होता तो वह चुपचाप बैठा होता और बता देता कि फलां फलां दिन आ कर पता कर लेना ….तेल और शक्कर का।
फिर कईं बार वहां जाने पर पता चलता कि डिपू के बाहर तो ताला लटका हुआ है ….वापिस लौट कर आना ही पड़ता था…..मुझे ऐसा याद नहीं कि इस तरह से चक्कर पर चक्कर लगाने से कभी मन खीज गया हो …क्योंकि इस तरह के काम उस ज़माने के बच्चों की ड़यूटी लिस्ट में शामिल थे ….इसलिए मेरा यह यकीन है कि उस दौर के बच्चे (जो अब बूढ़े-बुज़ुर्ग हो चुके हैं) …उन में सबर था….सहनशक्ति थी ….। वैसे ड़्यूटी लिस्ट कुछ कम रोचक न थी ….डेयरी से दूध लाना, पिता जी के लिए माचिस-सिगरेट लाना, कभी कभी सेरीडोन की गोली, चक्की पर आटा पिसवाने जाना, भट्ठी पर मक्का भुनवा के लाना, मोची के पास जा कर जूता सिलवा के लाना ……मेहमान के आने पर समोसा, जलेबी या बर्फी ले कर आना…..घर में किसी न किसी का साईकिल भी पेंचर हुआ ही रहता था …(कमज़ोर टायर-ट्यूब हुआ करते थे), उन को पेंचर लगवाना या अपने वाली में जा कर हवा टाइट करवाना ….फिर फुर्सत में दुकान से किराए पर पढ़ने वाले मैगज़ीन एवं बाल-उपन्यास ले कर आना…कामों की कोई कमी न थी…..अपनी यही दिल्लगी भी थी….लेकिन मैं अभी भी कितने काम भूल रहा हूं ....याद आते रहेंगे ...जैसे डाकखाने से जा कर पोस्टकार्ड ले कर आना और फिर अगले दिन उसे डाक-पेटी के सुपुर्द कर के आना .....
हां, तो बात कुछ और चल रही थी .....राशन की दुकान में मिट्टी के तेल की लाइन में खड़े होते वक्त एक टेंशन रहती थी…..अनुमान लगाईए………….
लगा पाए क्या कुछ अनुमान….
कोशिश तो करिए भाई ….
……
…….जी हां, टेंशन इस बात की होती थी कि कहीं बाहर से कोई उचक्का साईकिल ही न उठा कर ले जाए। होता था उन दिनों यह सब साईकिल बहुत चोरी करते थे ….हर जगह से ….और साईकिल चोरी एक बहुत बड़ी घटना होती थी ….और अकसर ताला लगा हुए साईकिल भी चुरा लिए जाते थे ….क्योंकि एक चोर-चाबी इन साईकिल चोरों के पास हुआ करती थी …. हा हा हा हा ….लेकिन बडी़ टेंशन होती थी साईकिल चोरी की …….
एक बात और …..वह राशन की दुकान वाला तौलता भी कम था …जब भी घर दो किलो चीनी लेकर जाओ तो यही सुनना पड़ता था कि यह तो इतनी कम है…,डिपो वाला बड़ा बेईमान है ….यहां तक की मिटटी का तेल का माप भी कभी पुरा नहीं होता था …फिर लोगों को समझ में आ गया कि उस ने उस कुप्पी के नीचे एक बड़ा सा गड्डा बनाया हुआ था ….जितना भी कम हो एक बार तौलने में …..दिन भर की बेइमानी से कुछ तो उस के हाथ लग ही जाता होगा…..(मिट्टी का तेल लेकर जाने वाला चाहे सोचता रहता कि पीपी तो 5 लिटर की ही थी लेकिन मिट्टी के तेल का लेवल इतना कम क्यों है…)
राशन की दुकान की बात चलती है तो रोटी कपड़ा और मकान का वह धूर्त राशन की दुकान वाला याद आ जाता है जो मौसमी चैटर्जी को परेशान करता है ….वह सीन बड़ा मार्मिक था….और उसी तरह से रोटी फिल्म में भी राशन की दुकान वाला लफड़ा …..जो इस गाने की तरफ़ ले जाता है …यह जो पब्लिक है ..सब जानती है ….
फिर मिट्टी के तेल की बात याद आ गई……मुख्य तौर पर घासलेट को स्टोव जलाने के लिए काम में लिया जाता था ….उन दिनों बत्ती भी बहुत ज़्यादा जाती थी ….इसलिए केरोसीन लैंप (दीए भी ….मिट्टी के तेल वाले) में भी इसे इस्तेमाल किया जाता था ….कईं बार किसी चाबी, ताले को जंग लग जाए तो उस में भी मिट्टी का तेल इस्तेमाल किया जाता था ….
क्या हमारे घरों में कुकिंग गैस आने पर हम लोगों ने घासलेट लाना बंद कर दिया…..
क्या ख्याल है आपका….
कुछ याद है या याद करना ही नहीं चाहते …
यादें कुरेदनी पड़ती हैं….अपने आप नहीं उभरतीं….
हा हा हा हा हा हा हा .......
नहीं, घऱ में कुकिंग गैस आने के बाद भी केरोसीन का तेल लाना ज़ारी रहा …वह इसलिए कि शुरु शुरू में एक सिलेंडर ही मिलता था और जब वह खत्म होता तो उस के बाद नया सिलेंडर आने तक कईं कईं दिन बीत जाते …….बड़ी आफत हो जाती थी ….फिर वही अंगीठी और कुछ कुछ काम के लिए स्टोव …क्योंकि घासलेट तो लिमिटेड ही रहता था किसी भी घऱ में….
फिर जब दो सिलेंडर मिलने लगे …जिसे शायद कहते थे …डीबीसी कनेक्शन…..वह तो गेम-चेंजर था …फिर तो मिट्टी के तेल को लोग भूलने लगे …..
मिट्टी के तेल का एक लफड़ा और भी था..फिल्मों में देखा ही होगा कि खुदकुशी के लिए अकसर लोग स्टोव में पड़े तेल को शरीर पर छिड़क कर अपनी जान ले लेने की धमकी दिया करते थे …लेकिन जो गरजते हैं, वो बरसते नहीं …..। दुःखद बात यह थी कि मिट्टी के तेल के दिनों में बहुत ही बहनें स्टोव से जल कर अपनी जान गंवा बैठी……सवाल तो लोग अब उठाते हैं कि स्टोव के हादसे में जलने वाली अकसर बहुएं ही क्यों होती थीं …।
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