राशन की दुकान और मिट्टी का तेल .....
रद्दी काग़ज़ पर लिखने का किस का मन चाहता है ….कहीं भी पसरे हुए नेट्फ्लिक्स, प्राईम-व्हीडियो, यू-ट्यूब पर अपने गांव-कसबे के खाने पीने के ज़ायके देखते देखते कब वक्त गुज़र जाता है ….ख्याल ही नहीं रहता। लिखने का भी अकसर मन नहीं करता….लेकिन कुछ बातें-यादें जो रह रह कर आती हैं, चेहरे पर मुस्कान ले आती हैं….लगता है उन को संजो लिया जाए तो ही ठीक है …. यह जो लाइनों में खड़े हो कर कुछ लेने की बात है …जब मैं अपने बचपन को या किशोरोवस्था को याद करता हूं तो मुझे रेलवे टिकट के लिए…चालू टिकट हो या फिर आरक्षित टिकट हो, किसी फिल्म के लिए किसी टाकीज़ के बाहर, और राशन की दुकान पर मिट्टी का तेल (घासलेट) और चीनी (शक्कर) लेने के लिए लाईन में खड़े होना अकसर याद आता है तो हंसी आ जाती है …..रेलवे रिज़र्वेशन के लिए आप चाहे कब से खड़े हों, लेकिन मर्ज़ी अंदर बैठे बाबू की ही चलती थी …रजिस्टर में सब कुछ हाथ से लिखा जाता था ….। फिल्म की टिकट लेने के लिए लाईन में खड़े रहना ….क्योंकि ब्लैक में टिकट लेने का जुगाड़ न होता था ….और राशन की दुकान पर आए दिन घासलेट और शक्कर के लिए चक्कर पर चक्कर लगाते रहना …..और व...